कानपुर का चर्चित बिकरू कांड आप सबने सुना होगा। इसमें गैंगस्टर विकास दुबे और उसके साथियों ने रात में पुलिस पर हमला किया था, जिसमें 8 पुलिसकर्मियों की जान चली गई थी। उसके बाद हुए एनकाउंटर में पुलिस ने विकास दुबे और उसके साथियों को मार दिया था। उन्हीं मरने वालों में मेरे पति अमर दुबे भी थे। मैं उन्हीं की पत्नी खुशी दुबे हूं। मेरी जिंदगी वहीं थम गई। वहीं कहीं बिखर गई। आज भी वो रात मेरे जेहन से जाती नहीं। बंद कमरे में बैठी हूं, लेकिन कानों में वही गोलियों की आवाजें अक्सर गूंजने लगती हैं। ज्यादा सोचती हूं, तो नाक से खून बहने लगता है। मोबाइल की घंटी बजते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, लगता जैसे कोई बुरी खबर आने वाली हो। पटाखों की आवाज से डरकर कांपने लगती हूं। रात को नींद नहीं आती। किसी भी काम में मन नहीं लगता। पढ़ना चाहती हूं, लेकिन शब्द आंखों के सामने से गुजरते हैं, दिमाग पकड़ नहीं पाता। मैं डिप्रेशन से जूझ रही हूं, लेकिन इलाज तक नहीं करवा पा रही। कोर्ट-कचहरी के चक्करों में सारा समय, सारा पैसा खत्म हो जाता है। जो शरीर कभी दौड़ लगाता था, वह अब चलने में भी कांपता है। दरअसल, मैंने 5 साल पहले 10वीं की परीक्षा दी थी। तब मैं 16 साल की थी। पापा की तबीयत बहुत खराब रहने लगी थी, इसलिए घर के लोग मेरी शादी के रिश्ते खोजने लगे। इसी बीच विकास दुबे के भतीजे अमर दुबे से रिश्ते की बात चली। पापा उन्हें देखने गए, लेकिन निराश लौटे। पापा ने शादी का वादा नहीं किया था। बस इतना ही कहा था, ‘बाद में बताएंगे।’ दो दिन बाद अमर दुबे मेरे घर आए। उनके साथ कुछ गुंडे थे। सभी के हाथ में बंदूकें थीं। उन्होंने मुझसे शादी के लिए मां से बात शुरू की, लेकिन मां ने मना कर दिया। काफी जिद की लेकिन मां नहीं मानी। इस पर वे लोग भड़के उठे। वे सभी मेरे कमरे में आए और मेरा हाथ-पैर पकड़कर अपनी गाड़ी में ठूंस दिया और घर से उठा ले गए। मैं रास्ते भर चीखीती-चिल्लाती रही। उनसे मिन्नतें करती रही कि मुझे छोड़ दो, लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी। वे मुझे कानपुर के बिकरू गांव ले गए और एक कमरे में बंद कर दिया। वहां सारे लोग मुझे अजीब लग रहे थे। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। इसके 2-3 घंटे बाद ही मेरी अमर दुबे से शादी करा दी गई। उसी दिन मैंने पहली बार विकास दुबे को देखा था। मेरा बचपन छिन गया। शादी के बाद मैं वहां रुकना नहीं चाहती थी। बार-बार कह रही थी मुझे घर जाने दो, घर जाने दो। अमर दुबे से भी कहा कि मुझे मेरे घर जाने दो, इस पर उन्होंने कहा था ‘चूल्हा-चौका’ की रस्म हो जाने दो फिर चली जाना। चूल्हा-चौका’ की रस्म यानी ससुराल में जब दुल्हन पहली बार खाना बनाती है। अभी तक मेरी अमर दुबे के साथ सुहागरात भी नहीं हुई थी। 2 जुलाई 2020 की रात थी। बिकरू गांव में मेरे घर के बाहर अचानक गोलियों की आवाजें गूंजने लगीं। लगा कोई बारात निकल रही होगी, लोग पटाखे फोड़ रहे होंगे, लेकिन फिर चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। ऐसा लगा जैसे कोई बुरा सपना आंखों के सामने सच हो उठा हो। घर में अफरा-तफरी मच गई। मैं कांपते हाथों से अपना कमरा बंद कर रोने लगी। काफी देर तक गोलियां चलीं। इसके बाद घर में अफरा-तफरी मची हुई थी। मैंने अपना दरवाजा नहीं खोला। सुबह 3 जुलाई को पता चला कि इस दौरान 8 पुलिसकर्मी मारे गए हैं। मैं घर जाना चाहती थी, लेकिन पुलिस ने मुझे पूछताछ के लिए रोक लिया और रात में मुझे, मेरी सास और देवर को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस हमें थाने ले गई और चार दिन तक वहां रखा। इस दौरान कोर्ट में पेशी हुई और फिर 8 जुलाई को हमें जेल भेज दिया गया। पुलिस ने मुझे 8 पुलिसकर्मियों की हत्या में अमर दुबे के साथ आरोपी बनाया था। आरोप लगाया था कि मैं भी इस घटना में शामिल हूं। जेल में पहला दिन किसी डरावने सपने से कम नहीं था। मुझे 40 महिलाओं के बीच एक बैरक में रखा गया, जहां बस पैर फैलाने भर की जगह थी। एक थाली, एक मग। उसी मग में चाय और दाल मिलती थी। उस खाने की महक मुझे परेशान कर देती थी। मां के हाथों का खाना बहुत याद आता था। मेरी मां खुद खाना नहीं खाती थीं, यह सोचकर कि शायद मैंने भी कुछ नहीं खाया होगा। वहां साफ-सफाई की हालत यह थी कि दो घंटे पानी आता था। नहाने, पीने और बर्तन धोने के लिए उसी पानी का इस्तेमाल करना होता था। 40 महिलाओं के लिए बस तीन बाथरूम थे और सभी खुले थे। लंबी लाइन लगती थी। कपड़े पहने हुए नहाना पड़ता था। नहाने के बाद खुले बाथरूम में कपड़े बदलना बहुत मुश्किल होता था। जेल में कोई किसी से बात नहीं करता था। सब चुप बैठे रहते थे। कुछ लोग टीवी देखते थे, कुछ चुपचाप अखबार पढ़ते थे। और मैं? बस अकेले बैठकर रोती रहती थी। जब कोई मिलने आता, आंखें सूखने का नाम नहीं लेती थीं। जेल का तीसरा दिन था, जब मैंने टीवी पर देखा कि अमर दुबे, मेरे पति, हिमाचल के हमीरपुर में एनकाउंटर में मारे गए। शादी के 5 दिन बाद ही मेरा सुहाग उजड़ गया। मैं अमर के बारे में सोचने लगी। हां, उन्होंने मुझसे जबरदस्ती शादी की थी, लेकिन जब वह मेरे पति बन गए, तो मैंने उन्हें स्वीकार कर लिया था। यह सोचकर कि शादी एक बार होती है, उसे अब निभाना चाहिए। मैं अब 5 दिन की सुहागन और फिर विधवा हो गई थी। मेरे आंसू नहीं रुक रहे थे। जेल में रहने के दौरान मेरे मम्मी-पापा ने मेरे लिए बहुत कुछ सहा। मुझे जेल से निकालने के लिए दिन-रात दौड़-भाग करते रहे। ढाई साल तक लखनऊ से दिल्ली के चक्कर लगाते रहे, तब जाकर सुप्रीम कोर्ट से मुझे जमानत मिल सकी। मैं ढाई साल जेल में रही। उस जुर्म के लिए जो मैंने किया ही नहीं था। इस वक्त मैं कानपुर के पनकी इलाके में रहती हूं। जेल से बाहर आने के बाद भी हालात नहीं बदले हैं। समाज ने जैसे हमें छोड़ ही दिया है। वह मुझे स्वीकार ही नहीं कर रहा। मैं जब भी घर से बाहर निकलती और लोगों से बात करना चाहती, तो वे मुझे नजरें फेर लेते थे। रास्ता बदलने लगे। अब मैंने बाहर निकलना ही बंद कर दिया है। मेरे दोस्त भी अब मुझसे बात नहीं करते। उन्हें डर लगता है कहीं वे मुझसे बात करके किसी झंझट में न पड़ जाएं। लोग हमारे घर आना-जाना बंद कर चुके हैं। शादी-ब्याह के कार्ड तक देना छोड़ दिया है। कई बार तो घर पर खाना बना रह जाता है, कोई खाता ही नहीं है। कोई एक दूसरे से बात नहीं करता है। घर में सन्नाटा पसरा रहता है। मम्मी-पापा के लिए यह सब देखकर मुझे बहुत बुरा लगता है। आखिर मेरे साथ उन्हें भी कितना कुछ झेलना पड़ रहा है। हर पेशी पर 35 किलोमीटर दूर चौबेपुर जाना पड़ता है। एक बार आने-जाने के लिए 500 रुपए खर्च होते हैं। कई बार पैसे नहीं होते। पापा ही कमाते हैं, जो अब बूढ़े हो गए हैं और बीमार रहते हैं। पेंटर हैं, बारिश में काम नहीं मिलता। कई बार किसी तरह उधार लेकर पैसे देते हैं। उनके बाद कोई और कमाने वाला नहीं है। यह सोचकर डर लगता है कि उन्हें कुछ हो गया तो हमारी जिंदगी कैसे चलेगी। हाल ही में पैर में फ्रैक्चर हुआ था, लेकिन फिर भी पेशी पर जाना पड़ा। मोबाइल तक नहीं है मेरे पास। रास्ते में कुछ हो जाए, तो किसी को बताने का भी जरिया नहीं है। आप लोगों की भी बेटियां हैं, जो कॉलेज जाती हैं। सपने बुनती हैं और करियर बना रही हैं। लेकिन मैं? जो लड़की कभी हाई स्कूल की छात्रा थी, आज कोर्ट-कचहरी, थानों और वकीलों के बीच भटक रही है। नौकरी की बहुत कोशिश की, लेकिन लोग नाम सुनते ही मना कर देते हैं। कहते हैं, ‘आपको नौकरी नहीं दे पाएंगे। आपका नाम बिकरू कांड से जुड़ा है।’ मेरे वकील, शिवाकांत दीक्षित जी हैं। उन्होंने मुझे अपनी बेटी मानकर केस लड़ा। एक रुपया फीस नहीं ली। मैं भी उन्हीं की तरह वकील बनना चाहती हूं, ताकि अपने जैसे बेकसूरों को न्याय दिला सकूं। शायद उसी से मेरी आत्मा को सुकून मिलेगा। मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि मेरे जैसे किसी और की दुनिया यूं न उजड़े। (खुशी दुबे ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा की हैं।) ————————————- 1- संडे जज्बात- संडे जज्बात- मैं सुब्रह्मण्यम स्वामी 2 साल में बनूंगा PM: मां राजी हुईं तो पारसी प्रेमिका से कहा-आई लव यू, बेटी ने मुस्लिम से शादी नहीं की पिता मुझे आईएएस बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी बात कभी नहीं मानी। उनसे उपद्रव का रिश्ता रहा। एक बार उन्होंने कहा कि तुम्हें पुणे के खड़कवासला मिलिट्री स्कूल जाना चाहिए, ताकि जिंदगी में अनुशासन आ सके। उन दिनों मैं क्रिकेट बहुत खेलता था। मैंने वहां भी जाने से इनकार कर दिया। पूरी खबर पढ़िए… 2- संडे जज्बात- 13 साल की रेप विक्टिम को बेटी बनाया: वो पूछती-मुझे उल्टी-दर्द क्यों हो रहा; मैं कैसे बताती कि उसे दरिंदों ने प्रेग्नेंट कर दिया। पंजाब के मोहाली का ‘प्रभु आसरा’ शेल्टर होम मशहूर है। यहां लोग अपने बच्चे, बूढ़े मां-बाप को छोड़कर चले जाते हैं। मैं इस शेल्टर होम की सेवादार राजिंदर कौर हूं। पूरी खबर पढ़िए…

संडे जज्बात- मेरी तो सुहागरात भी नहीं हुई:पति विकास दुबे का साथी था, पुलिस ने मार दिया; सोचने पर नाक से खून आता है
Related Posts
-
Kashif Ali’s quick-fire 88 steers Rapids to victory
He shared a record third-wicket stand of 127 with Gareth Roderick in six-wicket win
-
Gus Atkinson added to squad as England ponder changes
He joins Jofra Archer, Sam Cook and Jamie Overton as alternative seam-bowling options in hosts’…
-
McCullum admits England got the toss wrong: ‘We ran second for five days’
“It’s just we thought this pitch might get better to bat on as we went…
-
Moores, Clarke take charge as Notts keep hopes alive in thriller
One-wicket win leaves Leicestershire floored after Budinger fifty